मैं कैसे तुमको याद करूँ – शशि कुमार आँसू

मैं कैसे तुमको याद करूँ!
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

किस बात का फरियाद करूं।
मैं देखूं तुमको या बात करूँ।

मैं कैसे तुमको याद करूँ।
मैं कैसे तुमको याद करूँ।।

रोयां रोयां मेरा खील जाता है।
तेरी बातेँ जब याद आती है।।

मैं तन्हा सूरज बस तकता था,
एक रोज़ अचानक तू आयी!

कितने बसंत लो बीत गए,
ना तुम भूली न हम भूले।।

जब मिले थे कितने कच्चे थे,
हाँ हाँ हम शायद तब बच्चे थे।।

पल कैसा था क्या बात करूँ,
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

तुम कैसी थी क्या याद करूं,
दिल करता था तूझे प्यार करूं।

तेरी आँखे आज भी वैसी है,
खट्टी कच्ची कैरी की जैसी है।

जब तब तुम काज़ल करती थी,
तब मन-तन घायल हो जाता था।

इतराती हुई, झनकाती हुई,
तेरी पायल की झंकार सुनूं!

मैं कैसे तुमको याद करूँ!
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

तुम कैसी थी क्या याद करूं,
किस पल का अहसास धरूँ!

जब तब तुम बाल में बूंदों को,
बल खाके तुम झटकाती थी!

सच कहता हूँ मर मीट जाता था,
जब मुड़कर तुम मुस्काती थी।

जब देख मुझे मुस्काती थी,
कभी गाती थी, शर्माती थी।

जब धीरे से तेरे सुर्ख होठों से,
‘आँसू’ कहके मुझे बुलाती थी।

मैं कैसे तुमको याद करूँ!
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

पल जब भी वो मैं याद करूं
मन फिर पागल हो जाता है।

दिल करता था तूझे प्यार करूं।
बस प्यार करूं बस प्यार करूं।

मैं कैसे तुमको याद करूँ!
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

Simpi Shashi Singh

तेरी आज़ादी – कविता (शशि कुमार आँसू)

आओ तय करो कैसी हो तुझे तेरी आज़ादी !
कहो किस बात की हो तुझे तेरी आज़ादी!

क्या ख़ुद की बंदगी से मिले तुझे आज़ादी !
या तेरी मन की गंदगी से मिले तुझे आज़ादी !

क्या नफरतों के जाल से मिले तुझे आज़ादी !
या अधिनीयकों की चाल से मिले तुझे आज़ादी ! !

क्या तेरे झूठे वादों से से मिले तुझे आज़ादी !
या तेरी टुच्ची इरादों से मिले तुझे आज़ादी !

क्या तेरी कर्तव्यहीनता से मिले तुझे आज़ादी !
या तेरी कोरी कृतघ्नता से मिले तुझे आज़ादी !

क्या तेरी अनुशासनहीनता मिले तुझे आज़ादी !
या निपट तेरी शिथिलता से मिले तुझे आज़ादी !

राह की अनगिनत बाधाओं से मिले तुझे आज़ादी !
या मेहनतकश आशाओं से मिले तुझे आज़ादी !

क्या कहते हो, छीन के लोगे तेरी तुम आज़ादी !
क्या पतंग जैसे मांगे उसके डोर से वैसी आज़ादी!

कहो तो भला किस बात की मिले तुझे आज़ादी !
कहो तो भला किस बात की मिले तुझे आज़ादी !

© शशि कुमार आँसू

@shashiaansoo

अभी भी जिंदा हूँ – शशि कुमार आँसू

माँ देख अभी मैं जिंदा हूँ।
पर देख ये सब शर्मिंदा हूँ।।

कहने को बहुत प्रोग्रेसिव हूँ
पर सच में बहुत निगेटिव हूँ।
जब देखता हूँ तेरे आँगन को
मन हीं मन बहुत घबराता हूँ।

कोविड से लड़ते सब दुःख सहते,
पथरीले पथ पर अविरल चलते
माँ को ढोते निढाल सपनों को

देख ये सब बहुत शर्मिंदा हूँ।
माँ देख अभी मैं जिंदा हूँ।

कुछ निखट निपोरे प्रयत्नों को
देख कर सियासी सब यत्नो को
सड़क पर चलते धुप में जलते
हालत के मारे हम वतनों को

देख ये सब बहुत शर्मिंदा हूँ।
माँ देख अभी मैं जिंदा हूँ।

ये नुका छिपी और दाव पेंच मे
तिल-तिल कर मरते तेरे रत्नों को
सह और मात के खुराफात मे
गर्त में डूबते का सब संयंत्रो को

देख ये सब बहुत शर्मिंदा हूँ।
माँ देख अभी मैं जिंदा हूँ।

भूखे मदद की गुहार लगाते
सियासत दनों के ताल पर नचते
अपनी कल की राह को तकते
आशाओं का बस एक पुलिंदा हूँ

माँ देख अभी भी जिंदा हूँ।
माँ देख अभी भी जिंदा हूँ।।

©शशि कुमार ‘आँसू’

https://images.app.goo.gl/R4xDtsJrpxbUYT8r7
The 21-day lockdown, which came into force on Wednesday, has triggered an exodus of migrant workers from many cities.Credit – Business Standard Private Ltd. 
Heartbreaking visuals: A little boy fell asleep on a suitcase as his migrant parents take a long journey home from Punjab to Uttar Pradesh https://t.co/HcGEFRCKI4

मैं कैसे तुझको याद करूँ – शशि कुमार आँसू

Simpi Shashi Singh Happy 15th Anniversary

मैं कैसे तुझको याद करूँ,
तुझे देखूं या बात करूँ।
मैं कैसे तुझे याद करूँ।।

वो बातेँ जब याद आती है
रोयां रोयां खील जाता है

मैं तन्हा सूरज तकता था!
एक रोज़ अचानक तू आयी!
क्या उस पल का अहसास धरूँ
मैं कैसे तुझे याद करूँ।।

कैसे मैं तुझको याद करूँ,
पंद्रह बसंत लो अब बीत गये,
जब मिले थे कितने कच्चे थे!
हाँ-हाँ शायद हम बच्चे थे।

अब कैसी हो क्या बात करूँ!
बस वैसी हो जिसके साथ रहूँ ।

तेरी आँखे आज भी वैसी है
बस कच्ची कैरी की जैसी है।
इठलाती हुई बलखाती हुई
महकाती हुई दमकाती हुई।

जब-जब तुम काज़ल करती हो
तन मन घायल हो जाता है,

बन ठन कर जब तुम चलती हो
मन फिर पागल हो जाता है।

मैं कैसे तुझको याद करूँ,
मुस्काती हुई, भरमाती हुई,
कभी गाती हुई , शर्माती हुई,
कभी धीरे से सुर्ख होठों से
‘आँसू’ कहके बुलाती हुई

जब जब बाल में रुके बूंदों को,
बल खाके तुम झटकती हो,
सच कहता हूँ मर जाता …
जब मुड़कर तुम मुस्काती हो।

मैं कैसे तुझको याद करूँ,
पल-पल में तुम रग-रग में तुम
नींदों में तुम सपनों में तुम,
मैं चाहता तुमको
सिर्फ हूँ।
में माँगता तुमको
सिर्फ हूँ।

मैं कैसे तुझको याद करूँ,
तुमसे लड़ूँ या तुझे प्यार करूँ,
किस आनंद का साक्षात्कार करूँ
।।

तेरी बातें तेरे गोरे गाल सी है,
गुस्से में वो सुर्ख लाल सी है।
मैं गेंदा जैसा खीला हुआ,
तुम गुलमुहर कमाल सी है।

तुम कहो तुझे मैं क्यूँ याद करूँ!
बस तेरे साथ जीऊँ रोमांस करूँ
हर क्षण हर पल तेरे साथ रहूँ
तेरे साथ जीऊँ तेरे साथ मरूँ।


© शशि कुमार ‘आँसू ‘

I Love You SIMPI SINGH

Happy 15th Anniversary
Simpi Shashi Singh & Shashi Kumar Aansoo

मैं वक़्त हूँ फिर न वापस आऊंगा – शशि कुमार आँसू

मै वक्त हूँ फिर न वापस आऊंगा
जब बेला आएगी अलविदा कह जाऊंगा ।

तेरी तुम फिर अब देख लो
कुछ बचा है! तो तुम समेट लो
तुम देख लो क्या लाए थे!
तुम सोच लो क्या पाए लिए!

क्या मिल गया जो ठहर गए!
क्या कर लिया जो यूँ बिफर गए!
तुम किस नगर में ढल गए…
तुम किस डगर को चल दिए।

तुम किस कदर के ढीठ हो
ना जीत की तुझमे आग है,
ना प्रीत की तुझमे राग है,
सांत्वना बस अपरम्पार है।

तुम सोचते हो क्या हो जाएगा!
जो नसीब में है सब मिल जाएगा!
वो क्या है जिस पर गुमान है!
क्या अंतिम तेरी यही उड़ान है!

अंगीकार तुझे इस बात का हो
की तुम शुन्य पर सवार हो।
बहानों से भरे तेरे तिलिस्म मे,
तुम आत्ममुग्धता के शिकार हो।

तेरे बाजुओं में क्या दम नहीं
या जीत का अवचेतन नहीं!
जब सब छोड़कर तुम जाओगे!
किस बात पर आह्लाद पाओगे!!

तुम्हें किस कमी की शिकायत है?
जो नहीं मिला, तो नहीं मिला
जो नहीं किया, तो नहीं किया
ये सोच कर तु गिला न कर।

सब रिवायतों को तुम तोड़कर
सब जकड़नो को तुम छोड़ कर
जो पल बचा उसे सब जोड़ कर
प्रतिज्ञा तुम अब कठोर कर!

प्रचंड धीर अब बनेगा तुम।
न थकेगा तुम, न रुकेगा तुम।
कमजोरियों को तज़ कर सब,
श्रम की पराकाष्ठा करेगा तुम।।

मै वक्त हूँ फिर न वापस आऊंगा
नादान हो! मुझे जुमला समझ लो!
सुजान हो! मेरे इश्क़ मे पड़ लो।
मै वक्त हूँ नाम तेरा स्वर्णाक्षर से लिखऊँगा।

कविता By शशि कुमार ‘आँसू’

संघर्ष तेरा हो तो क्यूँ नहीं वो राम सा हो
प्रयत्न तेरा हो तो क्यूँ नहीं वो श्याम सा हो।

#Disclaimer – Opinions expressed are solely my own or drawn from innumerable centers of culture & lore. It do not express the views or opinions of my employer.

माँ! तुम होती तो कैसा होता – शशि कुमार आँसू

माँ! मैंने हर जगह ढूंढा तुमको

कभी तेरे किताबों के पन्नों मे,
कभी तेरे छोड़ गए गहनों मे,
कभी तेरे अधूरे लिखे लब्ज़ो में,
कभी तेरी मनमोहनी किस्सों में।

क्या था जो मुझको तज़ गयी
क्या एक दिवस का साथ था!
यूँ क्यूँ पंचतत्तव मे बिखर गयी!
किस भरोसे तुम मुझे तज़ गयी!

क्या मुझमें कोई कमी रही,
या मुझसे तुम नाराज थी!
जन्म दिया और चल बसे!
क्या देखने की जिद्द न थी!
या दिखलाने का मर्म न था!

क्या उन्हे मालूम न था?
उनके रचे इस लोक में,
बिन मां कैसे जीऊंगा मैं
तानो भरे विघ्न दंश को,
अकेले रूदन कैसे सहूंगा मैं।

माँ! तुम ही अब कहो यहाँ,
किस किस को माँ कहूँगा मैं!

शिकवा है पर उस रब से है
माँ! तुझसे कोई गीला नहीं।
तुम लड़ गयी होगी काल से
जब मैं भी तुझे मिला नहीं।

भगवान थे! रुक जाते वो!
कहती तो शायद झूक जाते वो!
क्यों मातृत्व मुझसे छीन गया!
क्यों अधिकार मेरा निल गया।

माँ! ये कौन सा नसीब है!
न तु है! न तेरी तस्वीर है!

माँ! सबसे अक्सर पूछता हूँ
तेरी शक्लों सूरत कैसी थी?
हर लोग बरबस यह कहते हैं,
तेरी आंखे हुबहू मेरी जैसी थी।

यूं तो लबरेज थी पानी से पर,
बरसात में नाचती मोरनी सी थी।

कोरोना! तुम कल आना – शशि कुमार आँसू

आज वक़्त यकीं से आगे निकलना चाहता है।
एक कोरोना सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।
एक व्याधि इस अलौकिक लोक मे विध्वंस लाना चाहता है।।
एक कोरोना सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।

ये मुश्किल की घड़ी है, सुरसा मुहँ बाएं खड़ी है!
हर शख़्स बेहाल है, मानवता बेसुध-बेज़ान पड़ी है।
उपर से ये खूदगर्ज अश्क! हमे हमसे हीं बहाने पर अड़ी है।।

हर तरफ दिल ना-उम्मीद और मन हैरां सा है!
वसुधैव कुटुम्ब स्तब्ध! हर अक्स परेशां सा है!
ऋतम्बरा भी क्षुब्ध है, क्षितिज रुआँसा सा है।
हवा बाहर की कातिल है। हर शख़्स डरा-सहमा सा है!

एक विषाणु देह की दहलीज़ हमारी लांघ कर,
धधकते दिलो की धडकनों पर पहरा लगाना चाहता है।
एक कोरोना सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।

खिज़ा सुर्ख है इंसा परेशान ज़िंदगी हैरान है !
चीखता मूक नाद है गली-सड़क सब वीरान है
सब कुछ बंद है स्कूल, दफ्तर और न दुकान है ।।

कैसा मंज़र है! सृजन के दरवाजे पर ताला हैं।
हर तरफ सिहरन है खौफ का शाया काला हैं।
सबको सबसे खतरें हैं! फ़िज़ा में कोरोना का जाला हैं।।

वक्त पहिया रोककर, हमारी सब्र का इम्तिहान लेना चाहता है।
बड़ा निर्दयी कातिल है ये हमें हमसे हीं दूर करना चाहता है।
एक कोरोना सम्पूर्ण धरा को काल के गाल में समाना चाहता है ।।
आज वक़्त यकीं से आगे निकलना चाहता है।
एक कोरोना सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।

मेरी हमनफस, मेरे अज़ीज़, मेरे मोहसिन
तू क्यूँ परेशान है! तू परेशां ना हो।
माना लंबी मुश्किल की हैं इक्कीस रातें, मगर रात हीं तो है!
ये भी गुज़र जायगा, तेरा साथ, मेरे साथ हीं तो है।

हाँ मंज़र खौफनाक है, पर ये सच्चाई नहीं जाने वाली,
यकीं कर खुदा है तो उसकी खुदायी नहीं जाने वाली।।
गर मन में तेरे राम हैं तो दुआ ये तेरी खाली नहीं जाने वाली ।।

गर नजदीकियों की ख्वाहिश है तो अभी की दूरियाँ कबूल कर
कोरोनाकाल से पार पाना है तो ये लॉकडाउन की मजबूरियां मंज़ूर कर ।
स्वच्छता संक्रमण से लड़ने का अंतिम अस्त्र है तो ये अस्त्र पर गुरुर कर ।।

मेरे यार, मेरे दोस्त, मेरे दुश्मन, मेरे हमवतन
इस वीरान हुए वक्त मे तुम गुलमुहर बन जा।
घर पर रह और घर को और गुलजार किए जा।
प्यार है तो प्यार कर, इश्क है तो इज़हार किए जा।।

रोक ले विघ्न-बाण ये जो धमनियों को गलाना चाहता है.
रुक जा! ठहर जा! आज वक़्त! आगे निकलना चाहता है।
एक कोरोना आज सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।

*** शब्दार्थ
सुरसा – सुरसा रामायण के अनुसार समुद्र में रहने वाली नागमाता थी। सीताजी की खोज में समुद्र पार करने के समय सुरसा ने राक्षसी का रूप धारण कर हनुमान का रास्ता रोका था और उन्हें खा जाने के लिए उद्धत हुई थी।
खिज़ा पतझड़ की ऋतु । अवनति का समय ।
सुर्ख – लाल (जैसे—सुर्ख़ गाल)।
मूक नाद – लाचार शब्द, ध्वनि
वसुधैव कुटुम्ब – सारी पृथ्वी एक परिवार
स्तब्ध – सुन्न, निश्चेष्ट
ऋतम्बरा – सदा एक समान रहने वाली सात्विक और निर्मल बुद्धि।
क्षितिज – Horizon पृथ्वीतल के चारों ओर की वह कल्पित रेखा या स्थान जहाँ पर पृथ्वी और आकाश एक दूसरे से मिलते हुए से जान पड़ते हैं

मैं तेरा आँसू – शशि कुमार आँसू

उसने ये नही किया
इसने वो नही किया
गिला यही रखकर
सारी उम्र बस गिला किया

ये वो कर सकता था…
पर उसने वो नही किया।
पर जिसने भी जो किया,
उसे किसी ने ये नही पूछा
तूने इतना कैसे किया!

यही होना है होता है
दस्तूर है बुजुर्ग कह गए
पर क्या हमने कुछ किया
हाँ शिकवा बहुत किया
ऑंसू न दे किसी को
ख़ुदा से यही दूआ किया।

कोशिश सच मे हज़ार की
न टूटे साथ किसी का
ना रूठे हाथ किसी का
सब सहोदर रहें 
सब अगोदर रहे
नया कल लिख पाए
हर सोच उत्तरोत्तर रहे

फ़क़त मलाल इस बात का है
बस अपने हीं शक करते रहे 
न जाने क्यूं जलते रहे बुझते रहे
हम की तलाश में, मैं-मैं करते रहे
न जाने क्यूं! किसके आड़ में
न सहोदर रहे न अगोदर रहे

हमने तो लानत देखी है
लाज़िम है की हम बोलेंगे
चौदह बरस का बनवास जिया
हर दिन जिसका अरदास किया

सब साख टूटी सब आंगन छोड़ा
वो फिर भी मेरे हो न सके
मैंने तो अपना कर्म  किया
सब को देखा हर धर्म किया
ना मैंने कोई  स्वार्थ रखा
ना मैंने कोई पार्थ रखा

हाँ मैंने सब्र के चाक रखे
जिसपर मेरे कुछ स्वप्न बुने
मैंने भी सफलता पायी है
कितनो वसंत के जाने पर

फ़नकारो के पावँ पखेरे है
तब जाकर ये नेयमत आयी
भूख में कितने दिन बीते
पावँ में कितने छाले आये
न जाने कितने दर भटकें
तब जाकर फ़क़त एक दीद मिली

सब कहते है बस कर्म करो
फल की चिंता से तुम न घुलो
पर ऐसे कैसे हो जाता है
जब बच्चे बड़े हो जाते है
सब जल्दी वह भूल जाते है।

माना जेनरेशन गैप हो जाता है
पर कर्ता तो कर्ता होता है
वह दुश्मन कब बन जाता है

हमने तो सारे प्रयत्न किये
न जाने किते जतन किये
हम मिल जुल कर सब रह लेंगे
इस बात का भी यत्न किये
पर सारे अनुनय बेकार गए

हमने भी अब यह मान लिया
रेखाओं को सब जान लिया
ये रेखाओ की तो मस्ती है
जो मेरे सिरे नही बस्ती है
सब कुछ छीना कुछ कर न सका
अब किससे किसकी बात करें

सब छोड़ गए ताने देकर
निष्ठुर मैं सब सहता गया
बर्दाश्त सबकी करता गया
एक दिन सब ठीक हो जायेगा
ये सोच कर बढ़ता गया।

न जाने सब कब रूठ गए
मेरी किस बात से टूट गए
मैंने तो न ऐसा चाहा था
सबको अपना ही माना था

हाँ जीवन के आपाधापी में
कुछ भूल हुई कुछ पाप हुआ
कुछ छूट गया कुछ टाल दिया
पर यह कैसा अभिशाप हुआ
कि सब जीत गए मैं हार गया।

होता है अक्सर  होता है
जब रेखाएँ धूमिल होती है
तब नाश मनुज पर छाता है।

मेरी तो रेखा थी हीं नही
आते हीं मिटा दिया मैंने
बढ़ते हीं बुझा दिया मैंने

तब रेखाओ की क्या चाल न थी!
जब माँ ने आंखे मुंदी थी।
तब रेखाओ की मज़ाल न थी!
जब पापा ने साथ छोड़ा था।

अब सब ऐसे है तो क्या करिये
आँसू किस्मत में है तो क्यूँ डरिये
चलो फिर से कोशिश हजार करिये
बस सबका ख्याल बेशुमार करिये।

© शशि कुमार आँसू

अब सब ऐसे है तो क्या करिये
आँसू किस्मत में है तो क्यूँ डरिये
चलो फिर से कोशिश हजार करिये
बस सबका ख्याल बेशुमार करिये। – Shashi Kumar ‘Aaansoo’



यादें जम जाती है।

धूप भी खुल के कुछ नहीं कहती,
रात ढलती नहीं, थम जाती है !
सर्द मौसम की एक दिक्कत है ,
याद तक जम के बैठ जाती है..!

शुभारंभ 2019

रुकावटे भले मिले बड़ी,
तूफान हो विकट खड़ी ।।
हर मार्ग पर प्रशस्त हो,
लौह रथ पर सवार हो ।
अनेक अश्व हाथ में,
किसी से तुम कभी ना डरो।
तुम वीर बनो , जुझार हो;
शक्ति की ललकार बनो ।
सफलता तांडव करे;
परिश्रम इतना प्रचंड हो।
ऐसा हीं नववर्ष हो,
तुम तेज़ रहो, सशक्त हो, अखंड हो ।।

आपका व आपके सभी प्रियजनों का नववर्ष मंगलमय हो

शुभारम्भ 2019

क़दम मिलाकर चलना होगा

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.

कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.

May Your Day be Filled with Good Thoughts, Kind People, & Happy Moments

लहरों का निमंत्रण

तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

रात का अंतिम प्रहर है,
झिलमिलाते हैं सितारे,
वक्ष पर युग बाहु बाँधे
मैं खड़ा सागर किनारे

वेग से बहता प्रभंजन
केश-पट मेरे उड़ाता,

शून्य में भरता उदधि–
उर की रहस्यमयी पुकारें,

इन पुकारों की प्रतिध्वनि
हो रही मेरे हृदय में,
है प्रतिच्छायित जहाँ पर
सिंधु का हिल्लोल – कंपन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

विश्व की संपूर्ण पीड़ा
सम्मिलित हो रो रही है,
शुष्क पृथ्वी आँसुओं से
पाँव अपने धो रही है,

इस धरा पर जो बसी दुनिया
यही अनुरूप उसके–

इस व्यथा से हो न विचलित
नींद सुख की सो रही है,

क्यों धरणि अब तक न गलकर
लीन जलनिधि में गई हो?
देखते क्यों नेत्र कवि के
भूमि पर जड़-तुल्य जीवन?
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

जड़ जगत में वास कर भी
जड़ नहीं व्यवहार कवि का
भावनाओं से विनिर्मित
और ही संसार कवि का,

बूँद के उच्छ्वास को भी
अनसुनी करता नहीं वह,

किस तरह होता उपेक्षा-
पात्र पारावार कवि का,

विश्व-पीड़ा से, सुपरिचित
हो तरल बनने, पिघलने,
त्याग कर आया यहाँ कवि
स्वप्न-लोकों के प्रलोभन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण।

जिस तरह मरु के हृदय में
है कहीं लहरा रहा सर,
जिस तरह पावस-पवन में
है पपीहे का छिपा स्वर

जिस तरह से अश्रु-आहों से
भरी कवि की निशा में

नींद की परियाँ बनातीं
कल्पना का लोक सुखकर

सिंधु के इस तीव्र हाहा –
कार ने, विश्वास मेरा,
है छिपा रक्खा कहीं पर
एक रस-परिपूर्ण गायन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण।

नेत्र सहसा आज मेरे
तम-पटल के पार जाकर
देखते हैं रत्न-सीपी से
बना प्रासाद सुन्दर

है खड़ी जिसमें उषा ले,
दीप कुंचित रश्मियों का,

ज्योति में जिसकी सुनहरली
सिंधु कन्याएँ मनोहर

गूढ़ अर्थों से भरी मुद्रा
बनाकर गान करतीं
और करतीं अति अलौकिक
ताल पर उन्मत्त नर्तन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं
आज लहरों में निमंत्रण!

मौन हो गंधर्व बैठे
कर श्रवण इस गान का स्वर,
वाद्य-यंत्रों पर चलाते
हैं नहीं अब हाथ किन्नर,

अप्सराओं के उठे जो
पग उठे ही रह गए हैं,

कर्ण उत्सुक, नेत्र अपलक
साथ देवों के पुरन्दर

एक अद्भुत और अविचल
चित्र-सा है जान पड़ता,
देव बालाएँ विमानों से
रहीं कर पुष्प-वर्णन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

दीर्घ उर में भी जलधि के
हैं नहीं खुशियाँ समाती,
बोल सकता कुछ न उठती
फूल वारंवार छाती,

हर्ष रत्नागार अपना
कुछ दिखा सकता जगत को,

भावनाओं से भरी यदि
यह फफककर फूट जाती,

सिन्धु जिस पर गर्व करता
और जिसकी अर्चना को
स्वर्ग झुकता, क्यों न उसके
प्रति करे कवि अर्घ्य अर्पण।
तीर पर कैसे रुकूँ में
आज लहरों में निमंत्रण!

आज अपने स्वप्न को मैं
सच बनाना चाहता हूँ,
दूर की इस कल्पना के
पास जाना चाहता हूँ,

चाहता हूँ तैर जाना
सामने अंबुधि पड़ा जो,

कुछ विभा उस पार की
इस पार लाना चाहता हूँ,

स्वर्ग के भी स्वप्न भू पर
देख उनसे दूर ही था,

किन्तु पाऊँगा नहीं कर
आज अपने पर नियंत्रण।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं
आज लहरों में निमंत्रण,

लौट आया यदि वहाँ से
तो यहाँ नव युग लगेगा,
नव प्रभाती गान सुनकर
भाग्य जगती का जगेगा,

शुष्क जड़ता शीघ्र बदलेगी
सरल चैतन्यता में,

यदि न पाया लौट, मुझको
लाभ जीवन का मिलेगा,

पर पहुँच ही यदि न पाया
व्यर्थ क्या प्रस्थान होगा?
कर सकूँगा विश्व में फिर-
भी नए पथ का प्रदर्शन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

१०

स्थल गया है भर पथों से
नाम कितनों के गिनाऊँ,
स्थान बाकी है कहाँ पथ
एक अपना भी बनाऊँ?

विश्व तो चलता रहा है
थाम राह बनी-बनाई

किंतु इनपर किस तरह मैं
कवि-चरण अपने बढ़ाऊँ?

राह जल पर भी बनी है,
रूढ़ि, पर, न हुई कभी वह,

एक तिनका भी बना सकता
यहाँ पर मार्ग नूतन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

११

देखता हूँ आँख के आगे
नया यह क्या तमाशा –
कर निकलकर दीर्घ जल से
हिल रहा करता मना-सा,

है हथेली-मध्य चित्रित
नीर मग्नप्राय बेड़ा!

मैं इसे पहचानता हूँ,
हैं नहीं क्या यह निराशा?

हो पड़ी उद्दाम इतनी
उर-उमंगे, अब न उनको
रोक सकता भय निराशा का,
न आशा का प्रवंचन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

१२

पोत अगणित इन तरंगों ने
डुबाए मानता मैं,
पार भी पहुँचे बहुत-से —
बात यह भी जानता मैं,

किन्तु होता सत्य यदि यह
भी, सभी जलयान डूबे,

पार जाने की प्रतिज्ञा
आज बरबस ठानता मैं,

डूबता मैं, किंतु उतराता
सदा व्यक्तित्व मेरा
हों युवक डूबे भले ही
है कभी डूबा न यौवन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

१३

आ रहीं प्राची क्षितिज से
खींचने वाली सदाएँ,
मानवों के भाग्य-निर्णायक
सितारों! दो दुआएँ,

नाव, नाविक, फेर ले जा,
हैं नहीं कुछ काम इसका,

आज लहरों से उलझने को
फड़कती हैं भुजाएँ

प्राप्त हो उस पार भी इस
पार-सा चाहे अंधेरा,
प्राप्त हो युग की उषा
चाहे लुटाती नव किरन-धन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!

:- हरिवंशराय बच्चन

अब कभी रुकना नही – शशि कुमार आँसू (कविता)

अब कभी रुकना नही
बस कारवां बुनते रहना,
अब तुम झुकना नही
बस मंज़िले चूमते रहना।

सफ़र में लोग मिलेंगे
कुछ तुमसे बेहतर कहने वाले
कुछ तुमसे बेहतर सुनने वाले,
कुछ नासमझ कुछ नासाज़।

सफ़र में लोग मिलेंगे
कुछ फिक्र को सर पे ढ़ोने वाले,
कुछ दर्द के पैवन्द को सीने वाले
कुछ तेरे वाले कुछ मेरे वाले।

सफ़र में लोग मिलेंगे
कुछ सर्वस्व देने वाले,
कुछ जो भी है ले लेने वाले,
कुछ इधर वाले तो कुछ उधर वाले।

बस रुकना नही
दकियानूसी ख्यालो से बचना
यूं ही बेफ़िक्र होकर फिक्र करना
बेख़बर पर ख़बर रखना।
बेमुरव्वत हीं सही पर बेसब्र रहना
बेबाक लिखना, बेझिझक कहना।

एक भी आँसू न कर बेकार

एक भी आँसू न कर बेकार –
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,

कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ –
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं,

हर छलकते अश्रु को कर प्यार –
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
काम अपने पाँव ही आते सफर में,
वह न ईश्वर के उठाए भीउठेगा –

जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में,

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार –
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!

– रामावतार त्यागी

Toh Zinda Ho Tum

Dilon mein tum apni
Betaabiyan leke chal rahe ho
Toh zinda ho tum

Nazar mein khwabon ki
Bijliyan leke chal rahe ho
Toh zinda ho tum

Hawa ke jhokon ke jaise
Aazad rehno sikho

Tum ek dariya ke jaise
Lehron mein behna sikho

Har ek lamhe se tum milo
Khole apni bhaayein

Har ek pal ek naya samha
Dekhen yeh nigahaeino

Jo apni aankhon mein
Hairaniyan leke chal rahe ho
Toh zinda ho tum

Dilon mein tum apni
Betaabiyan leke chal rahe ho
Toh zinda ho tum

For All Eternity, Oh My Dear

For All Eternity,
For All Eternity, Oh My Dear
I Will Love You…
I Will Keep You In My Heart…
I Will Always Care For You…
You Will Be In My Heart…
For All the Stars At The Night Sky,
I Will Always Wish For You…
For All The Sea And Oceans,
I Will Always Swim For You…
For All The Lands, Fields, And Mountains,
I Will Always Climb For You…
For All Eternity,
I Will Always Be With You…
For All The Sadness And Madness,
I Will Always Weep For You…
For All The Pains And Heartaches,
I Will Always Share It With You…
For All The Bliss And Happiness,
I Will Always Rejoice With You…
For All The Things You Will Feel,
I Will Always Feel The Same You Do…
For All The Things In This World…
For All The Reason I Breathe And Live…
For All The Blessings God Give…
For All The Love I Feel…
I Would Love To Feel And Share It With You…
I Will Always Be With You…
I Will Always Love, Care And Miss You…
Yes, My Dear I Will Always Love You…
For All Eternity…

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