
काव्य मंजरी के तरफ से एक छोटी सी भेंट

चलो एक बार फिर गांव की ओर।
उस बड़े बरगद के छांव की ओर।।
जहां मिलती थी खुशियां राहों में।
थी जन्नत जहां बुजुर्गों के बाहों में।।
हर जगह अपनों का एहसास था ।
हर घर में जहां शांति का वास था ।।
ना नेटवर्क की पीड़ा ना प्रदूषण का डर ।
अपनों के बीच पतली पर लंबी डगर ।।
शहरों ने हमें बना दिया संकुचित घर ।
इमारतें हैं लंबी पर संबंधों में लटका अधर ।।
गांव की छोटी सी झोपड़ी रामराज है ।
शहर का अकेलापन संकुचित स्वराज है ।।
कोयल की कूक और कौवे की कांव की ओर ।
चलो एक बार फिर गांव की ओर।
उस बड़े बरगद के छांव की ओर।।