दिलों में तुम अपनी बेताबियाँ लेके चल रहे हो, तो ज़िंदा हो तुम

दिलों में तुम अपनी बेताबियाँ लेके चल रहे हो, तो ज़िंदा हो तुम
नज़र में ख्वाबों की बिजलियाँ लेके चल रहे हो, तो ज़िंदा हो तुम

हवा के झोकों के जैसे आज़ाद रहना सीखो
तुम एक दरियाँ के जैसे लहरों में बहना सीखो
हर एक लम्हें से तुम मिलो खोले अपनी बाहें
हर एक पल एक नया समा देखे यह निगाहें

जो अपनी आँखों में हैरानियाँ लेके चल रहे हो, तो ज़िंदा हो तुम
दिलों में तुम अपनी बेताबियाँ लेके चल रहे हो, तो ज़िंदा हो तुम

– जावेद अख्तर

मैं कैसे तुमको याद करूँ – शशि कुमार आँसू

मैं कैसे तुमको याद करूँ!
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

किस बात का फरियाद करूं।
मैं देखूं तुमको या बात करूँ।

मैं कैसे तुमको याद करूँ।
मैं कैसे तुमको याद करूँ।।

रोयां रोयां मेरा खील जाता है।
तेरी बातेँ जब याद आती है।।

मैं तन्हा सूरज बस तकता था,
एक रोज़ अचानक तू आयी!

कितने बसंत लो बीत गए,
ना तुम भूली न हम भूले।।

जब मिले थे कितने कच्चे थे,
हाँ हाँ हम शायद तब बच्चे थे।।

पल कैसा था क्या बात करूँ,
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

तुम कैसी थी क्या याद करूं,
दिल करता था तूझे प्यार करूं।

तेरी आँखे आज भी वैसी है,
खट्टी कच्ची कैरी की जैसी है।

जब तब तुम काज़ल करती थी,
तब मन-तन घायल हो जाता था।

इतराती हुई, झनकाती हुई,
तेरी पायल की झंकार सुनूं!

मैं कैसे तुमको याद करूँ!
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

तुम कैसी थी क्या याद करूं,
किस पल का अहसास धरूँ!

जब तब तुम बाल में बूंदों को,
बल खाके तुम झटकाती थी!

सच कहता हूँ मर मीट जाता था,
जब मुड़कर तुम मुस्काती थी।

जब देख मुझे मुस्काती थी,
कभी गाती थी, शर्माती थी।

जब धीरे से तेरे सुर्ख होठों से,
‘आँसू’ कहके मुझे बुलाती थी।

मैं कैसे तुमको याद करूँ!
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

पल जब भी वो मैं याद करूं
मन फिर पागल हो जाता है।

दिल करता था तूझे प्यार करूं।
बस प्यार करूं बस प्यार करूं।

मैं कैसे तुमको याद करूँ!
मैं कैसे तुमको याद करूँ!

Simpi Shashi Singh

पापा! तुम गए जबसे (कन्हैया)

तुम गए जबसे, कुछ पास नहीं मेरे,
कितने मौसम आये बदले..
आंखें बरसात है घेरे।।

थी तमन्ना ऊँगली थामुं…
जेब टोलूँ मैं।
चाट खा लूं ..डांट खा लूं…
बातें कर लूं दो…गोद में तेरे।।

पर ये मुमकिन हो सका ना,
यादें डाले हैं डेरे…..।

तुम गए जबसे,कुछ पास नहीं मेरे,
कितने मौसम आये बदले..
आंखें बरसात है घेरे..।।


✍🏻कन्हैया

चलो एक बार फिर गांव की ओर – नितेश कपूर

नितेश कपूर

चलो एक बार फिर गांव की ओर।
उस बड़े बरगद के छांव की ओर।।

जहां मिलती थी खुशियां राहों में।
थी जन्नत जहां बुजुर्गों के बाहों में।।

हर जगह अपनों का एहसास था ।
हर घर में जहां शांति का वास था ।।

ना नेटवर्क की पीड़ा ना प्रदूषण का डर ।
अपनों के बीच पतली पर लंबी डगर ।।

शहरों ने हमें बना दिया संकुचित घर ।
इमारतें हैं लंबी पर संबंधों में लटका अधर ।।

गांव की छोटी सी झोपड़ी रामराज है ।
शहर का अकेलापन संकुचित स्वराज है ।।

कोयल की कूक और कौवे की कांव की ओर ।
चलो एक बार फिर गांव की ओर।
उस बड़े बरगद के छांव की ओर।।

काव्य मञ्जरी की काव्य गोष्ठी में पल-पल बरसे हर रस, समसामयिक विषयों पर चिंतन-मंथन करते रहे कलमवीर

रविवार 12-06-2022 को साहित्यिक सांस्कृतिक कला मंच आँती के तत्वाधान में काव्य-मञ्जरी 0.2 ऑनलाइन कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था। जिसमें अध्यक्ष Gautam Kumar सरगम भैया के अध्यक्षता में वरिष्ठ कवि एवं जाने-माने पत्रकार Rajesh Manjhwekar भैया, कवि डॉ शैलेन्द्र कुमार प्रसून जी, कवि शशि कुमार आँसू भैया, कवि एवं शिक्षक नितेश कपूर जी, कवि-गायक Santosh Maharaj जी, युवा कवि Amit Kumar Amit भाई एवं मैंने Prabhakar India काव्य पाठ किया।
राजेश मंझवेकर भैया ने अंत में बहुत सुंदर समीक्षा भी किये और कलम को और प्रखर बनाने हेतू सुंदर सुझाव भी दिए।


आप सभी ने मंच के लिए समय दिया, उसके लिए हम बहुत आभार व्यक्त करते हैं और आशा करते हैं कि #साहित्य सेवा निरन्तर होता रहे।


बहुत-बहुत धन्यवाद।
प्रभाकर प्रभू

सोनवर्षा वाणी समाचार पत्र
सन्मार्ग समाचार पत्र
नव बिहार टाइम्स

#हिंदुस्तान
#दस्तक_प्रभात

तुझे किस कमी की शिकायत है? – शशि कुमार आँसू

क्या मिल गया जो ठहर गए!
क्या पा लिया जो बिफर गए।

तुम किस डगर पर चल दिए,
तुम किस नगर में बहल गए।

किसी बात का क्या तुम्हे गम नही।
या जीत का तुम्हे अवचेतन नही।।

तुम सोचते हो क्या हो जाएगा!
जो नसीब में है मिल जाएगा।

अंगीकार तुम्हे इस बात का हो,
तुम सिर्फ शुन्य पर सवार हो।

अपनो बहानों भरे तिलिस्म मे,
आत्ममुग्धता के शिकार हो।

सोचो छोड़कर सब तुम जाओगे,
किस बात पर आह्लाद पाओगे।

जो नहीं मिला, तो नहीं मिला
जो नहीं किया, तो नहीं किया

तुझे किस कमी की शिकायत है?

सारी जकड़नो को छोड़ कर।
सब रिवायतों को  तोड़ कर,

जो पल बचा, सब जोड़ कर,
प्रतिज्ञा तुम अब कठोर कर!

प्रचंड धीर वीर अब बनेगा तुम।
न थकेगा तुम, अब न रुकेगा तुम।

कमजोरियों को तज़ कर सब,
श्रम की पराकाष्ठा करेगा तुम।

– शशि कुमार ‘आँसू’


तुझे किस कमी की शिकायत है?

मां तेरी दुआ है साथ मैं संवर जाउंगा… काव्य मंजरी ने जोड़ा शब्द शिल्पियों को, बिखरे अनेक रंग

प्रभाकर प्रभु जी के संचालन में एतवार को आयोजित ऑनलाइन कवि सम्मेलन बड़ा ही मनमोहक और शानदार रहा जिसमें सभी कलमकारों ने कार्यक्रम के पहले दिन ही अपने काव्य अभिव्यक्त कर अपना विशेष छाप छोड़ी।


विशेष रूप से राजेश मंझवेकर सर, आंशु भाई साहब और रेजा तस्लीम भाई ने मां की रचना से कार्यक्रम को माँ मय कर दिया।


खुशी जी का पुत्र प्रेम की रचना, प्रभाकर प्रभु भाई की तरन्नुम में ग़ज़लें, नांदा जी की ग़ज़लें,सागर
जी की छंदमुक्त कविताएं सब सराहनीय थी। कविता गीत के अलावे भी जो बातें राजेश मंझवेकर जी, आशु भाई,प्रभु भाई ने जो कही वो अत्यंत आवश्यक, संवेदनशील, कर्ण प्रिय और साहित्य जगत में आने
के लिए ज़रूरी भी था। आपलोगों ने मेरे तारीफ में बड़े बड़े शब्दों का जो उच्चारण किया उसके लिए आभार, हालांकि मैं अभी उस काबिल नहीं हुआ हूँ बस आपलोग ये साहित्य और सांस्कृतिक कारवां को प्यार दें साथ दें। आज के कार्यक्रम को सुंदर बनाने के लिए आपलोगों को बहुत बहुत धन्यवाद व स्नेह।
– गौतम कुमार (शिक्षक, कवि, मगही शिक्षाविद, ग्राम आती, नवादा)

शब्दशिल्पियों ने बिखरे अनेक रंग कला व सांस्कृतिक मंच आंती के प्रयास से हुआ आयोजन

दस्तक प्रभात प्रतिनिधि

~Rajesh Manjhwekar JI

नवादा | काव्य मंजरी के कवि सम्मेलन में मां के जिक्र से सबकी आंखें नम हो गयीं तो आज के माहौल पर काव्य प्रहार होने पर सभी संजीदा हो गए। शब्दों से जोश भरा गया और जमाने की दस्तूरबयानी भी हुई। इस ऑनलाइन प्रयास के क्रम में कवि सम्मेलन के संयोजक सह संचालक राष्ट्रीय कवि प्रभाकर

प्रभु ने अशआर और गजलों से समां बांध दिया । कला व सांस्कृतिक मंच आंती के अध्यक्ष गौतम कुमार सरगम की शायर रेजा तसलीम ने मां तेरी दुआ है साथ मैं संवर जाउंगा… और है इसी कड़ी में कवि शशि कुमार आंसू ने माँ ! सबसे अक्सर पूछता हूँ, तेरी शक्लो-सूरत कैसी थी ? का पाठ कर मंच को रूला दिया। माँ का साया नहीं सर पे मेरे मगर, काम आती है

माँ की दुआ दोस्तों से शायर नादाँ रूपौवी ने मां की परिभाषा को विस्तार दिया । जीते जी तो या खुदा पूछा नहीं, मर गए तो सब दवा करने लगे… से गजलगो प्रभाकर प्रभु और काश तुम यहां मेरे पास होते, तो इन पलों की बात ही कुछ और होती. कवयित्री – अभिनेत्री खुशबू कुमारी ने अपने मन की बात की । कवि – अभिनेता सागर इंडिया ने अतरंगी दुनिया की सैर कराते

हुए बेटियों की कर्मशीलता से परिचय कराया । कार्यक्रम अध्यक्ष कवि गौतम कुमार सरगम ने मगही में शासन में फैलल बीमरिया, कैसे पढ़ीं पढ़ईया ना के बहाने व्यवस्था की पोल खोल डाली । अंत में राजेश मंझवेकर ने काव्य गोष्ठी की विशद समीक्षा की और सभी को साहित्यिक और सांस्कृतिक कारवां को निरंतर आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया ।

दस्तक प्रभात प्रतिनिधि

मां तेरी दुआ है साथ मैं संवर जाउंगा… हिन्दूस्तान प्रतिनिधि

■ काव्य मंजरी ने जोड़ा शब्दशिल्पियों को, बिखरे कई रंग

■ कला व सांस्कृतिक मंच आंती के प्रयास से हुआ आयोजन

नवादा, नगर संवाददाता। काव्य मंजरी के कवि सम्मेलन में मां के जिक्र से सबकी आंखें नम हो गयीं तो आज के माहौल पर काव्य प्रहार होने पर सभी संजीदा हो गए। शब्दों से जोश भरा गया और जमाने की दस्तूरबयानी भी हुई। इस ऑनलाइन प्रयास के क्रम में कवि सम्मेलन के संयोजक सह संचालक राष्ट्रीय कवि प्रभाकर प्रभु ने अशआर और गजलों से समां बांध दिया। कला व सांस्कृतिक मंच आंती के अध्यक्ष गौतम कुमार सरगम की अध्यक्षता तथा कलमकार राजेश मंझवेकर की बतौर समीक्षक उपस्थिति में सभी कवियों ने अपनी छाप छोड़ी।

शायर रेजा तसलीम ने मां तेरी दुआ है साथ मैं संवर जाउंगा… और राजेश मंझवेकर ने चली गयी फिर दूसरे धाम, राह दिखा रहा जिसका नाम, वो मां थी… का पाठ कर माहौल को नम कर दिया तो इसी कड़ी में कवि शशि कुमार आंसू ने माँ ! सबसे अक्सर पूछता हूँ, तेरी शक्लो-सूरत कैसी थी? का पाठ कर मंच को रूला दिया। माँ का साया नहीं सर पे मेरे मगर, काम आती है माँ की दुआ दोस्तों… से शायर नादाँ रूपौवी ने मां की परिभाषा को विस्तार दिया। कवयित्री – अभिनेत्री खुशबू कुमारी ने अपने मन की बात की। कवि अभिनेता सागर इंडिया ने अतरंगी दुनिया की सैर कराई। कार्यक्रम अध्यक्ष कवि गौतम कुमार सरगम ने मगही में शासन में फैलल बीमरिया, कैसे पढ़ीं पढ़ईया ना… के बहाने व्यवस्था की पोल खोल डाली।

हिन्दूस्तान प्रतिनिधि


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अंतिम ऊँचाई – कुँवर नारायण

कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब
अगर दसों दिशाएँ हमारे सामने होतीं,
हमारे चारों ओर नहीं।
कितना आसान होता चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते होते
बाक़ी सब रुका होता।

मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को
दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में
अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।

शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं
कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,
लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं।
हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती
कि वह सब कैसे समाप्त होता है
जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था
हमारे चाहने पर।

दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे—
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है—

जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं—
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में।

स्रोत :

  • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 92)
  • रचनाकार : कुँवर नारायण
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 2008

घर की याद – भवानी प्रसाद मिश्र

आज पानी गिर रहा है,
बहुत पानी गिर रहा है,
रात-भर गिरता रहा है,
प्राण मन घिरता रहा है,

अब सवेरा हो गया है,
कब सवेरा हो गया है,
ठीक से मैंने न जाना,
बहुत सोकर सिर्फ़ माना—

क्योंकि बादल की अँधेरी,
है अभी तक भी घनेरी,
अभी तक चुपचाप है सब,
रातवाली छाप है सब,

गिर रहा पानी झरा-झर,
हिल रहे पत्ते हरा-हर,
बह रही है हवा सर-सर,
काँपते हैं प्राण थर-थर,

बहुत पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,
घर कि मुझसे दूर है जो,
घर ख़ुशी का पूर है जो,

घर कि घर में चार भाई,
मायके में बहिन आई,
बहिन आई बाप के घर,
हायर रे परिताप के घर!

आज का दिन दिन नहीं है,
क्योंकि इसका छिन नहीं है,
एक छिन सौ बरस है रे,
हाय कैसा तरस है रे,

घर कि घर में सब जुड़े हैं,
सब कि इतने तब जुड़े हैं,
चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,

और माँ बिन-पढ़ी मेरी,
दुःख में वह गढ़ी मेरी,
माँ कि जिसकी गोद में सिर,
रख लिया तो दुख नहीं फिर,

माँ कि जिसकी स्नेह-धारा
का यहाँ तक भी पसारा,
उसे लिखना नहीं आता,
जो कि उसका पत्र पाता।

और पानी गिर रहा है,
घर चतुर्दिक् घिर रहा है,
पिताजी भोले बहादुर,
वज्र-भुज नवनीत-सा उर,

पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिल-खिलाएँ,

मौत के आगे न हिचकें,
शेर के आगे न बिचकें,
बोल में बादल गरजता,
काम में झंझा लरजता,

आज गीता पाठ करके,
दंड दो सौ साठ करके,
ख़ूब मुगदर हिला लेकर,
मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे
नैन जल से छाए होंगे,
हाय, पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,

चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,
खेलते या खड़े होंगे,
नज़र उनकी पड़े होंगे।

पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
रो पड़े होंगे बराबर,
पाँचवें का नाम लेकर,

पाँचवाँ मैं हूँ अभागा,
जिसे सोने पर सुहागा,
पिताजी कहते रहे हैं,
प्यार में बहते रहे हैं,

आज उनके स्वर्ण बेटे,
लगे होंगे उन्हें हेटे,
क्योंकि मैं उन पर सुहागा
बँधा बैठा हूँ अभागा,

और माँ ने कहा होगा,
दुःख कितना बहा होगा
आँख में किस लिए पानी,
वहाँ अच्छा है भवानी,

वह तुम्हारा मन समझ कर,
और अपनापन समझ कर,
गया है सो ठीक ही है,
यह तुम्हारी लीक ही है,

पाँव जो पीछे हटाता,
कोख को मेरी लजाता,
इस तरह होओ न कच्चे,
रो पड़ेगे और बच्चे,

पिताजी ने कहा होगा,
हाय कितना सहा होगा,
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,
धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,

गिर रहा है आज पानी,
याद आता है भवानी,
उसे थी बरसात प्यारी,
रात-दिन की झड़ी झारी,

खुले सिर नंगे बदन वह,
घूमता फिरता मगन वह,
बड़े बाड़े में कि जाता,
बीज लौकी का लगाता,

तुझे बतलाता कि बेला
ने फलानी फूल झेला,
तू कि उसके साथ जाती,
आज इससे याद आती,

मैं न रोऊँगा,—कहा होगा,
और फिर पानी बहा होगा,
दृश्य उसके बाद का रे,
पाँचवे की याद का रे,
भाई पागल, बहिन पागल,
और अम्मा ठीक बादल,
और भौजी और सरला,,
सहज पानी, सहज तरला,

शर्म से रो भी न पाएँ,
ख़ूब भीतर छटपटाएँ,
आज ऐसा कुछ हुआ होगा,
आज सबका मन चुआ होगा।

अभी पानी थम गया है,
मन निहायत नम गया है,
एक-से बादल जमे हैं,
गगन-भर फैले रमे हैं,

ढेर है उनका, न फाँकें,
जो कि किरने झुकें-झाँकें,
लग रहे हैं वे मुझे यों,
माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,

गगन-आँगन की लुनाई,
दिशा के मन से समाई,
दश-दिशा चुपचार है रे,
स्वस्थ की छाप है रे,

झाड़ आँखें बंद करके,
साँस सुस्थिर मंद करके,
हिले बिन चुपके खड़े हैं,
क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,

एक पंछी बोलता है,
घाव उर के खोलता है,
आदमी के उर बिचारे,
किस लिए इतनी तृषा रे,

तू ज़रा-सा दुःख कितना,
सह सकेगा क्या कि इतना,
और इस पर बस नहीं है,
बस बिना कुछ रस नहीं है,

हवा आई उड़ चला तू,
लहर आई मुड़ चला तू,
लगा झटका टूट बैठा,
गिरा नीचे फूट बैठा,

तू कि प्रिय से दूर होकर,
बह चला रे पूर होकर
दुःख भर क्या पास तेरे,
अश्रु सिंचित हास तेरे!

पिताजी का वेश मुझको,
दे रहा है क्लेश मुझको,
देह एक पहाड़ जैसे,
मन कि बड़ का झाड़ जैसे

एक पत्ता टूट जाए,
बस कि धारा फूट जाए,
एक हल्की चोट लग ले,
दूध की नद्दी उमग ले,

एक टहनी कम न होले,
कम कहाँ कि ख़म न होले,
ध्यान कितना फ़िक्र कितनी,
डाल जितनी जड़ें उतनी!
इस तरह का हाल उनका,

इस तरह का ख़याल उनका,
हवा, उनको धीर देना,
यह नहीं जी चीर देना,
हे सजीले हरे सावन,

हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें,

मैं मज़े में हूँ सही है,
घर नहीं हूँ बस यही है,
किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब विरस है,

किंतु उससे यह न कहना,
उन्हें देते धीर रहना,
उन्हें कहना लिख रहा हूँ,
मत करो कुछ शोक कहना,

और कहना मस्त हूँ मैं,
कातने में व्यस्त हूँ मैं,
वज़न सत्तर सेर मेरा,
और भोजन ढेर मेरा,

कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दुःख डट कर ठेलता हूँ,
और कहना मस्त हूँ मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,

हाय रे, ऐसा न कहना,
है कि जो वैसा न कहना,
कह न देना जागता हूँ,
आदमी से भागता हूँ,

कह न देना मौन हूँ मैं,
ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं,
देखना कुछ बक न देना,
उन्हें कोई शक न देना,

हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें।

स्रोत:
पुस्तक : मन एक मैली क़मीज़ है (पृष्ठ 25)संपादक : नंदकिशोर आचार्यरचनाकार : भवानी प्रसाद मिश्रप्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशनसंस्करण : 1998

मैं जो हूँ :भवानी प्रसाद मिश्र की कविता

मैं जो हूँ
मुझे वही रहना चाहिए
यानी
वन का वृक्ष
खेत की मेड़
नदी की लहर
दूर का गीत
व्यतीत
वर्तमान में
उपस्थित भविष्य में
मैं जो हूँ मुझे वही रहना चाहिए
तेज़ गर्मी
मूसलाधार वर्षा
कड़ाके की सर्दी
ख़ून की लाली
दूब का हरापन
फूल की जर्दी
मैं जो हूँ
मुझे अपना होना
ठीक ठीक सहना चाहिए
तपना चाहिए
अगर लोहा हूँ
हल बनने के लिए
बीज हूँ
तो गड़ना चाहिए
फल बनने के लिए
मैं जो हूँ
मुझे वह बनना चाहिए
धारा हूँ अंत:सलिला
तो मुझे कुएँ के रूप में
खनना चाहिए
ठीक ज़रूरतमंद हाथों से
गान फैलाना चाहिए मुझे
अगर मैं आसमान हूँ
मगर मैं
कब से ऐसा नहीं
कर रहा हूँ
जो हूँ
वही होने से डर रहा हूँ।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते (यशोधरा)

सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना ?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते ।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में –
क्षात्र-धर्म के नाते ।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा ?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते !

सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते ?
गये तरस ही खाते !

सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दु:ख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?
आज अधिक वे भाते !

सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते ?

सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

मैथिलीशरण गुप्त

अभी भी जिंदा हूँ – शशि कुमार आँसू

माँ देख अभी मैं जिंदा हूँ।
पर देख ये सब शर्मिंदा हूँ।।

कहने को बहुत प्रोग्रेसिव हूँ
पर सच में बहुत निगेटिव हूँ।
जब देखता हूँ तेरे आँगन को
मन हीं मन बहुत घबराता हूँ।

कोविड से लड़ते सब दुःख सहते,
पथरीले पथ पर अविरल चलते
माँ को ढोते निढाल सपनों को

देख ये सब बहुत शर्मिंदा हूँ।
माँ देख अभी मैं जिंदा हूँ।

कुछ निखट निपोरे प्रयत्नों को
देख कर सियासी सब यत्नो को
सड़क पर चलते धुप में जलते
हालत के मारे हम वतनों को

देख ये सब बहुत शर्मिंदा हूँ।
माँ देख अभी मैं जिंदा हूँ।

ये नुका छिपी और दाव पेंच मे
तिल-तिल कर मरते तेरे रत्नों को
सह और मात के खुराफात मे
गर्त में डूबते का सब संयंत्रो को

देख ये सब बहुत शर्मिंदा हूँ।
माँ देख अभी मैं जिंदा हूँ।

भूखे मदद की गुहार लगाते
सियासत दनों के ताल पर नचते
अपनी कल की राह को तकते
आशाओं का बस एक पुलिंदा हूँ

माँ देख अभी भी जिंदा हूँ।
माँ देख अभी भी जिंदा हूँ।।

©शशि कुमार ‘आँसू’

https://images.app.goo.gl/R4xDtsJrpxbUYT8r7
The 21-day lockdown, which came into force on Wednesday, has triggered an exodus of migrant workers from many cities.Credit – Business Standard Private Ltd. 
Heartbreaking visuals: A little boy fell asleep on a suitcase as his migrant parents take a long journey home from Punjab to Uttar Pradesh https://t.co/HcGEFRCKI4

क्या थे क्या हो गये हैं हम – प्रभाकर “प्रभू”

मन कहीं टिकता नहीं
भागता है रुकता नहीं
दिन रात जैसे भाग रहा
और उम्मीदें साज रहा
पर कर्म अब भी शून्य है
क्या पाप है क्या पुण्य है
अगर ये भी ज्ञात हो
कि जीत हो या मात हो
ये कर्म ही सर्वोपरि है
और मेहनत ही बड़ी है
जागना था पर सो गये हैं हम
क्या थे क्या हो गये हैं हम
हर निशा संकल्प लेकर
और नयन को स्वप्न देकर
धोखा ही देते आयें हैं
फिर ख़ुद को ही बचायें हैं
कल हुआ तो कल होगा
सफल या विफल होगा
पर मन को समझाये कौन
बेबस यूँ पड़ा है मौन
किस्मत को ही कोसना है
पर ख़ुद को नहीं टोकना है
काटना है जो बो गये हैं हम
क्या थे क्या हो गये हैं हम
मन से जिस दिन निकल गये
समझो राह पकड़ लिये
बस आगे बढ़ते जाना है
और पास नहीं ठिकाना है
जितना दूर तुम जाओगे
ये दुनिया पास तुम पाओगे
जब रक्त पसीना बन जायेगा
तब मन पे क़ाबू हो जायेगा
पर ये सोच के ना रुक जाना
और लौट के मन को ना आना
जैसा चाहा ना हुआ तो फिर
दुनिया मुझपर हँसेगी फिर
कल को किसने देखा है
तुमको किसने रोका है
आज तुम्हारी बारी है
कर लो जो तैयारी है
हँसते हैं तो हँसने दो
जो कहते हैं कहने दो
पर तुमने जो ठाना है
उसको कर दिखाना है
बातों बातों में खो गये हैं हम
क्या थे क्या हो गये हैं हम
©प्रभाकर “प्रभू”

कविता #poetry #poet #kavyamanjari #motivational

मैं वक़्त हूँ फिर न वापस आऊंगा – शशि कुमार आँसू

मै वक्त हूँ फिर न वापस आऊंगा
जब बेला आएगी अलविदा कह जाऊंगा ।

तेरी तुम फिर अब देख लो
कुछ बचा है! तो तुम समेट लो
तुम देख लो क्या लाए थे!
तुम सोच लो क्या पाए लिए!

क्या मिल गया जो ठहर गए!
क्या कर लिया जो यूँ बिफर गए!
तुम किस नगर में ढल गए…
तुम किस डगर को चल दिए।

तुम किस कदर के ढीठ हो
ना जीत की तुझमे आग है,
ना प्रीत की तुझमे राग है,
सांत्वना बस अपरम्पार है।

तुम सोचते हो क्या हो जाएगा!
जो नसीब में है सब मिल जाएगा!
वो क्या है जिस पर गुमान है!
क्या अंतिम तेरी यही उड़ान है!

अंगीकार तुझे इस बात का हो
की तुम शुन्य पर सवार हो।
बहानों से भरे तेरे तिलिस्म मे,
तुम आत्ममुग्धता के शिकार हो।

तेरे बाजुओं में क्या दम नहीं
या जीत का अवचेतन नहीं!
जब सब छोड़कर तुम जाओगे!
किस बात पर आह्लाद पाओगे!!

तुम्हें किस कमी की शिकायत है?
जो नहीं मिला, तो नहीं मिला
जो नहीं किया, तो नहीं किया
ये सोच कर तु गिला न कर।

सब रिवायतों को तुम तोड़कर
सब जकड़नो को तुम छोड़ कर
जो पल बचा उसे सब जोड़ कर
प्रतिज्ञा तुम अब कठोर कर!

प्रचंड धीर अब बनेगा तुम।
न थकेगा तुम, न रुकेगा तुम।
कमजोरियों को तज़ कर सब,
श्रम की पराकाष्ठा करेगा तुम।।

मै वक्त हूँ फिर न वापस आऊंगा
नादान हो! मुझे जुमला समझ लो!
सुजान हो! मेरे इश्क़ मे पड़ लो।
मै वक्त हूँ नाम तेरा स्वर्णाक्षर से लिखऊँगा।

कविता By शशि कुमार ‘आँसू’

संघर्ष तेरा हो तो क्यूँ नहीं वो राम सा हो
प्रयत्न तेरा हो तो क्यूँ नहीं वो श्याम सा हो।

#Disclaimer – Opinions expressed are solely my own or drawn from innumerable centers of culture & lore. It do not express the views or opinions of my employer.

माँ! तुम होती तो कैसा होता – शशि कुमार आँसू

माँ! मैंने हर जगह ढूंढा तुमको

कभी तेरे किताबों के पन्नों मे,
कभी तेरे छोड़ गए गहनों मे,
कभी तेरे अधूरे लिखे लब्ज़ो में,
कभी तेरी मनमोहनी किस्सों में।

क्या था जो मुझको तज़ गयी
क्या एक दिवस का साथ था!
यूँ क्यूँ पंचतत्तव मे बिखर गयी!
किस भरोसे तुम मुझे तज़ गयी!

क्या मुझमें कोई कमी रही,
या मुझसे तुम नाराज थी!
जन्म दिया और चल बसे!
क्या देखने की जिद्द न थी!
या दिखलाने का मर्म न था!

क्या उन्हे मालूम न था?
उनके रचे इस लोक में,
बिन मां कैसे जीऊंगा मैं
तानो भरे विघ्न दंश को,
अकेले रूदन कैसे सहूंगा मैं।

माँ! तुम ही अब कहो यहाँ,
किस किस को माँ कहूँगा मैं!

शिकवा है पर उस रब से है
माँ! तुझसे कोई गीला नहीं।
तुम लड़ गयी होगी काल से
जब मैं भी तुझे मिला नहीं।

भगवान थे! रुक जाते वो!
कहती तो शायद झूक जाते वो!
क्यों मातृत्व मुझसे छीन गया!
क्यों अधिकार मेरा निल गया।

माँ! ये कौन सा नसीब है!
न तु है! न तेरी तस्वीर है!

माँ! सबसे अक्सर पूछता हूँ
तेरी शक्लों सूरत कैसी थी?
हर लोग बरबस यह कहते हैं,
तेरी आंखे हुबहू मेरी जैसी थी।

यूं तो लबरेज थी पानी से पर,
बरसात में नाचती मोरनी सी थी।

सतपुड़ा के घने जंगल – भवानीप्रसाद मिश्र

सतपुड़ा के घने जंगल।
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।

सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढँक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,

ये घिनौने, घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

अटपटी-उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाएँ।
साँप सी काली लताएँ
बला की पाली लताएँ

लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात-झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,

कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,

कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फूस डाले
गोंड तगड़े और काले।

जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके

सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
उँघते अनमने जंगल।

जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।

क्षितिज तक फ़ैला हुआ-सा,
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?

ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।

लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरण दल,
झूमते बन-फूल, फलियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय

सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।

Disclaimer : ये कविता भारतीय काव्य की सार्वभौमिकता को संकलित करने के उद्देश्य से विशुद्ध अव्यावसायिक रूप मे यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

कोरोना! तुम कल आना – शशि कुमार आँसू

आज वक़्त यकीं से आगे निकलना चाहता है।
एक कोरोना सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।
एक व्याधि इस अलौकिक लोक मे विध्वंस लाना चाहता है।।
एक कोरोना सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।

ये मुश्किल की घड़ी है, सुरसा मुहँ बाएं खड़ी है!
हर शख़्स बेहाल है, मानवता बेसुध-बेज़ान पड़ी है।
उपर से ये खूदगर्ज अश्क! हमे हमसे हीं बहाने पर अड़ी है।।

हर तरफ दिल ना-उम्मीद और मन हैरां सा है!
वसुधैव कुटुम्ब स्तब्ध! हर अक्स परेशां सा है!
ऋतम्बरा भी क्षुब्ध है, क्षितिज रुआँसा सा है।
हवा बाहर की कातिल है। हर शख़्स डरा-सहमा सा है!

एक विषाणु देह की दहलीज़ हमारी लांघ कर,
धधकते दिलो की धडकनों पर पहरा लगाना चाहता है।
एक कोरोना सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।

खिज़ा सुर्ख है इंसा परेशान ज़िंदगी हैरान है !
चीखता मूक नाद है गली-सड़क सब वीरान है
सब कुछ बंद है स्कूल, दफ्तर और न दुकान है ।।

कैसा मंज़र है! सृजन के दरवाजे पर ताला हैं।
हर तरफ सिहरन है खौफ का शाया काला हैं।
सबको सबसे खतरें हैं! फ़िज़ा में कोरोना का जाला हैं।।

वक्त पहिया रोककर, हमारी सब्र का इम्तिहान लेना चाहता है।
बड़ा निर्दयी कातिल है ये हमें हमसे हीं दूर करना चाहता है।
एक कोरोना सम्पूर्ण धरा को काल के गाल में समाना चाहता है ।।
आज वक़्त यकीं से आगे निकलना चाहता है।
एक कोरोना सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।

मेरी हमनफस, मेरे अज़ीज़, मेरे मोहसिन
तू क्यूँ परेशान है! तू परेशां ना हो।
माना लंबी मुश्किल की हैं इक्कीस रातें, मगर रात हीं तो है!
ये भी गुज़र जायगा, तेरा साथ, मेरे साथ हीं तो है।

हाँ मंज़र खौफनाक है, पर ये सच्चाई नहीं जाने वाली,
यकीं कर खुदा है तो उसकी खुदायी नहीं जाने वाली।।
गर मन में तेरे राम हैं तो दुआ ये तेरी खाली नहीं जाने वाली ।।

गर नजदीकियों की ख्वाहिश है तो अभी की दूरियाँ कबूल कर
कोरोनाकाल से पार पाना है तो ये लॉकडाउन की मजबूरियां मंज़ूर कर ।
स्वच्छता संक्रमण से लड़ने का अंतिम अस्त्र है तो ये अस्त्र पर गुरुर कर ।।

मेरे यार, मेरे दोस्त, मेरे दुश्मन, मेरे हमवतन
इस वीरान हुए वक्त मे तुम गुलमुहर बन जा।
घर पर रह और घर को और गुलजार किए जा।
प्यार है तो प्यार कर, इश्क है तो इज़हार किए जा।।

रोक ले विघ्न-बाण ये जो धमनियों को गलाना चाहता है.
रुक जा! ठहर जा! आज वक़्त! आगे निकलना चाहता है।
एक कोरोना आज सम्पूर्ण सृजन को निगलना चाहता है।।

*** शब्दार्थ
सुरसा – सुरसा रामायण के अनुसार समुद्र में रहने वाली नागमाता थी। सीताजी की खोज में समुद्र पार करने के समय सुरसा ने राक्षसी का रूप धारण कर हनुमान का रास्ता रोका था और उन्हें खा जाने के लिए उद्धत हुई थी।
खिज़ा पतझड़ की ऋतु । अवनति का समय ।
सुर्ख – लाल (जैसे—सुर्ख़ गाल)।
मूक नाद – लाचार शब्द, ध्वनि
वसुधैव कुटुम्ब – सारी पृथ्वी एक परिवार
स्तब्ध – सुन्न, निश्चेष्ट
ऋतम्बरा – सदा एक समान रहने वाली सात्विक और निर्मल बुद्धि।
क्षितिज – Horizon पृथ्वीतल के चारों ओर की वह कल्पित रेखा या स्थान जहाँ पर पृथ्वी और आकाश एक दूसरे से मिलते हुए से जान पड़ते हैं

मैं तेरा आँसू – शशि कुमार आँसू

उसने ये नही किया
इसने वो नही किया
गिला यही रखकर
सारी उम्र बस गिला किया

ये वो कर सकता था…
पर उसने वो नही किया।
पर जिसने भी जो किया,
उसे किसी ने ये नही पूछा
तूने इतना कैसे किया!

यही होना है होता है
दस्तूर है बुजुर्ग कह गए
पर क्या हमने कुछ किया
हाँ शिकवा बहुत किया
ऑंसू न दे किसी को
ख़ुदा से यही दूआ किया।

कोशिश सच मे हज़ार की
न टूटे साथ किसी का
ना रूठे हाथ किसी का
सब सहोदर रहें 
सब अगोदर रहे
नया कल लिख पाए
हर सोच उत्तरोत्तर रहे

फ़क़त मलाल इस बात का है
बस अपने हीं शक करते रहे 
न जाने क्यूं जलते रहे बुझते रहे
हम की तलाश में, मैं-मैं करते रहे
न जाने क्यूं! किसके आड़ में
न सहोदर रहे न अगोदर रहे

हमने तो लानत देखी है
लाज़िम है की हम बोलेंगे
चौदह बरस का बनवास जिया
हर दिन जिसका अरदास किया

सब साख टूटी सब आंगन छोड़ा
वो फिर भी मेरे हो न सके
मैंने तो अपना कर्म  किया
सब को देखा हर धर्म किया
ना मैंने कोई  स्वार्थ रखा
ना मैंने कोई पार्थ रखा

हाँ मैंने सब्र के चाक रखे
जिसपर मेरे कुछ स्वप्न बुने
मैंने भी सफलता पायी है
कितनो वसंत के जाने पर

फ़नकारो के पावँ पखेरे है
तब जाकर ये नेयमत आयी
भूख में कितने दिन बीते
पावँ में कितने छाले आये
न जाने कितने दर भटकें
तब जाकर फ़क़त एक दीद मिली

सब कहते है बस कर्म करो
फल की चिंता से तुम न घुलो
पर ऐसे कैसे हो जाता है
जब बच्चे बड़े हो जाते है
सब जल्दी वह भूल जाते है।

माना जेनरेशन गैप हो जाता है
पर कर्ता तो कर्ता होता है
वह दुश्मन कब बन जाता है

हमने तो सारे प्रयत्न किये
न जाने किते जतन किये
हम मिल जुल कर सब रह लेंगे
इस बात का भी यत्न किये
पर सारे अनुनय बेकार गए

हमने भी अब यह मान लिया
रेखाओं को सब जान लिया
ये रेखाओ की तो मस्ती है
जो मेरे सिरे नही बस्ती है
सब कुछ छीना कुछ कर न सका
अब किससे किसकी बात करें

सब छोड़ गए ताने देकर
निष्ठुर मैं सब सहता गया
बर्दाश्त सबकी करता गया
एक दिन सब ठीक हो जायेगा
ये सोच कर बढ़ता गया।

न जाने सब कब रूठ गए
मेरी किस बात से टूट गए
मैंने तो न ऐसा चाहा था
सबको अपना ही माना था

हाँ जीवन के आपाधापी में
कुछ भूल हुई कुछ पाप हुआ
कुछ छूट गया कुछ टाल दिया
पर यह कैसा अभिशाप हुआ
कि सब जीत गए मैं हार गया।

होता है अक्सर  होता है
जब रेखाएँ धूमिल होती है
तब नाश मनुज पर छाता है।

मेरी तो रेखा थी हीं नही
आते हीं मिटा दिया मैंने
बढ़ते हीं बुझा दिया मैंने

तब रेखाओ की क्या चाल न थी!
जब माँ ने आंखे मुंदी थी।
तब रेखाओ की मज़ाल न थी!
जब पापा ने साथ छोड़ा था।

अब सब ऐसे है तो क्या करिये
आँसू किस्मत में है तो क्यूँ डरिये
चलो फिर से कोशिश हजार करिये
बस सबका ख्याल बेशुमार करिये।

© शशि कुमार आँसू

अब सब ऐसे है तो क्या करिये
आँसू किस्मत में है तो क्यूँ डरिये
चलो फिर से कोशिश हजार करिये
बस सबका ख्याल बेशुमार करिये। – Shashi Kumar ‘Aaansoo’



ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो।

अश्क अनमोल है खो न देना कहीं
इनकी हर बूँद है मोतियों से हसीं
इनको हर आंख से तुम चुराते रहो
ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो।

सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना – पाश

क्या आप #पाश को जानते हैं ! हाँ “अवतार सिंह संधू” इनका पूरा नाम यही है। इनकी हर लिखी पक्ति आज भी शूलगता हुआ शोला है। आज दुनियाँ जैसे भी उन्हे याद रखे पर उनकी रचित हर कविता मे सच्चाई की एक भीषण गंध है जोआपके अंतर्मन को झकझोर कर रख देती है।

आज पाश को जिस भी पक्ष से आप देख लें पर उनकी सारगर्भिता आप झूठला नहीं सकते। उनकी बेहद तल्ख और धारदार पंक्तियाँ पिघले लोहे की भांति आपके हर शय को चीरती हुयी आपके अंतर्मन में लहूलुहान हो चुके हर अनुभति को शब्दों दे देती है। शायद यही कारण है की आज भी उनकी कविता उतनी हीं रेलवन्ट मालूम पड़ती है जितनी कभी वो अपने दौर मे थी।

पाश हमे अक्सर आगाह करते रहे हैं साथ मे प्रेरित भी करते हैं कि आप जिस भी स्थिति मे हों उसे बेहतर करने की जद्दोजहद करते राहनी चाहिए। उनकी रचित एक बेहद लोकप्रिय कविता “मेहनत की लूट” चाहे जिस भी परिस्थिति मे लिखी गई हो पर आज भी उतना ही प्रासांगिक है । हर शब्द वेदना और विद्रोह की भीषण गंध लिए आपको प्रेरित करती है और बेहतर सपने देखने की हिम्मत देती है।

याद रहे, बेहतर कल का निर्माण आज के बेहतर सपनों से होती है और बेहतर आज के लिए अथक परिश्रम की जरूरत है। जरूरी नहीं कि हमारे सपने राजनीति के तराजू पे तौले जाएं और लेफ्ट और राइट विंग के चक्कर मे यूं हीं दम तोड़ दे। हम अक्सर समाज मे बदलाव के लिए आवाज उठाने की खोखली कोशिश करते रहते हैं पर शायद खूद के खोंखलेपन के वजह से किसी दूसरों के अजेंडा का एक मोहरा बन कर रह जाते हैं।

हमारी सफलता-असफलता के लिए हमसे ज्यादा कोई और जिम्मेदार नहीं हो सकता। हमने सपने देखना छोड़ दिया है। जो बहुमूल्य प्रयास पहले हमारे खूबसूरत कल के लिए होना चाहिए वो न जाने क्यों बिखर सा गया है … हमारे सपने मर से गए है और ये सबसे खतरनाक है

मेहनत की लूट कविता अपनी श्याह पक्ष के साथ भी आज की प्रासंगिकता में उतनी ही सार्थक है.

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